हमारे यहां सब कुछ उपलब्ध है। काफी कुछ तो बहुतायत में है लेकिन पिछले दिनों पता लगा कि मनोरंजन की काफी कमी है। ज़बरदस्त और स्वादिष्ट कंटेंट खूब परोसा जा रहा है लेकिन दर्शक सिनेमा हाल में जाकर फिल्म नहीं देख पा रहे। वैसे तो अब यह कहा जा रहा है कि विदेशी चीज़ों का इस्तेमाल न करें लेकिन कुछ भी कहो, विदेशी फ़िल्में क्या गज़ब हैं। यह भी मानना पडेगा कि मनोरंजन के मामले में चीन हमसे बहुत आगे है। उनके यहां नब्बे हज़ार स्क्रीन हैं और हमारे यहां सिर्फ दस हज़ार स्क्रीन हैं। वह बात अलग है कि हमने इनमें वे छोटे खतरनाक स्क्रीन शामिल नहीं किए जो देर रात तक चलते रहते हैं, आंखें खराब करते हैं । बिस्तर के पास मेज़ पर इयर ड्रॉप्स इंतज़ार करते रहते हैं कि कब आंखों में राहत सामग्री पहुंचाएं। बात तो ठीक है, बड़े स्क्रीन ज़्यादा संख्या में होंगे तो आंखों को सब कुछ, हर कुछ देखना ज़्यादा आरामदेह लगेगा। आंखें थककर खराब नहीं होंगी। हमारी आबादी इतनी ज्यादा और बेचारे स्क्रीन कम। वैसे तो हमारे यहां आबादी के हिसाब से डॉक्टर भी कम हैं। अमेरिका की आबादी हमसे कितनी कम है लेकिन वहां चालीस हज़ार स्क्रीन हैं। बहुत भारी गलत बात है जी। इससे साफ़ साबित होता है कि हम अच्छी तरह से मनोरंजन नहीं कर पा रहे। कई क्षेत्रों में तो एक भी सिनेमा घर नहीं है। इस दुर्भाग्य के कारण, लोगों को घरों में बैठकर या बाज़ार, सड़क, बस या पार्क में मोबाइल देखते रहना पड़ता है। इसे भी पढ़ें: प्लास्टिक के फूल (व्यंग्य)यह बात मैं अपनी तरफ से नहीं कह रहा बल्कि देश के स्थापित अभिनेता कह रहे थे। मनोरंजन कम हो रहा है इसलिए लोग गलत हरकतें कर रहे हैं। वास्तव में स्वस्थ मनोरंजन तो कब का आत्महत्या कर चुका है। अब तो तनरंजन का ज़माना है। सिनेमा में फ़िल्में, सिर्फ दो प्रतिशत जनता ही देख पाती है। कुछ मिलीलीटर पानी के खासे दाम भी देती है। अट्ठानवे प्रतिशत जनता यानी बच्चे, जवान, प्रौढ़ और महाप्रौढ़ को सबकुछ, हरकुछ और बहुतकुछ जहां मौका मिले देखना पड़ता है। चलो मान लिया, मनोरंजन कम हैं लेकिन करोड़ों लोगों के लिए सार्वजनिक वाशरूम भी तो नहीं हैं। नागरिक शौचालय नहीं हैं। इस मामले में महिलाओं बारे बात करना गुस्ताखी है। वैसे यह भी एक उचित सामाजिक उपाय है कि अपार संभावनाओं का फायदा उठाना चाहिए। देशवासियों को, हर तरह के मनोरंजन में गर्दन तक डुबोकर रखना चाहिए ताकि दूसरा कुछ सोचने के काबिल न रहें। मनोरंजन के दौरान उन्हें पैक्ड फूड का पैकेट दे देना चाहिए जिस का कचरा जहाँ मर्जी फेंकें। इस तरह हम मनोरंजन के क्षेत्र में भी विश्वगुरु भी बन सकते हैं। एक बार मिले जीवन में खाना भरपेट मिले न मिले, सड़क पर चलने के लिए जगह न हो, स्कूल में बेहतर शिक्षा मिले न मिले, उपयुक्त स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें न मिलें, न्याय दर्जनों सालों तक मिले न मिले बस मनोरंजन बढ़ते रहना चाहिए। - संतोष उत्सुक
राजपाल यादव ने कहा है कि बॉलीवुड में कोई नेपोटिजम नहीं है। अगर होता तो फिर शाहरुख खान से लेकर दिलीप कुमार और धर्मेंद्र तक कैसे होते। राजपाल यादव ने कहा कि कनेक्शन से भले ही ब्रेक मिल जाए, पर आगे टैलेंट ही चाहिए।
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